Param Pujya Sant Shri Asharam ji Bapu

चैत्यन्य महाप्रभु गौरांग भक्तों के साथ कीर्तन करते करते नदी किनारे जा निकले..नदी किनारे एक धोबी हुश हुश करते हुए 
कपडे धो रहा थागौरांग को क्या सूझी कि धोबी को बोले हुश हुश क्या करता है?..हरि   बोल हरि बोल
धोबी बोलाबाबा तुम्हारे साथ मैं  नाचूँगा तो मेरे कपडे कौन धोएगा?..रोजी रोटी कौन करेगा ?
आप तो बाबा लोगों का ठीक है हरि बोल हरि बोलमैं  हरि बोल करूंगा तो मेरा धंधा कौन करेगा..
 गौरांग बोलेतेरा धंधा तो मैं  कर लूं .तू हरि बोल..लाओ कपड़ा
गौरांग महा प्रभु कपड़ा धोतेहुश करते ..और धोबी बोलता हरि बोल..हुश!–हरिबोल..हुश!–हरि बोलहुश!—-हरि बोल..
 हुश हुश करते करते धोबी के सारे पाप हुश हो गएधोबी को तो हरि बोल का रंग लग गया!..
बोला अब तो बाबा आप के साथ ही रहूंगा हरि बोल हरि बोल करूंगा मैं  तो..हरि बोल.. हरि बोल
गाँव में खबर फैली कि धोबी तो बावरा हो गया..बाबा लोगों के साथ हरि बोल हरि बोलकर रहा..
धोबी की पत्नी भी  गयी..
बोली..  रसूल के अब्बा..
धोबी बोले  ‘हरि बोल!’
 धोबी की पत्नी बोली.. ‘ऐ जुनेद के अब्बा …’
 धोबी बोले  ‘हरि बोल!’
पत्नी बोली, ‘ये क्या करते हो?’..धोबी ने ज़रा हाथ लगाया तो पत्नी भी बोल पड़ी : हरिबोल!हरि बोल!हरि बोल!…
गाँव के लोग बोले बाई वो तो दीवाना हो गया तुम क्यों ऐसा करती हो..दूसरी बाई ने धोबी की पत्नी के हाथ पकड़ के समझाया..
तो  वो बाई भी लग गयी हरि बोल हरि बोल करने….तीसरे भाई ने रोका तो वो भी हरि बोल हरि बोल करने लग गया..
गाँव के जो भी उन को रोकने आते वो हरि बोल हरि बोल के कीर्तन में रंग जाते..जैसे संक्रामक रोग छूने वाले को लग जाता 
ऐसे इस हितकारी और पवित्र भगवान के नाम की मस्ती ने गाँव वालों को झूमा झूमा कर ऐसे पवित्र कर दिया कि इतिहास 
बोलता है कि वो धोबी धन्य रहा होगा जिसने संत के दर्शन से हरि बोल करते हुए सारे गाँव को पवित्र करदिया!

हरि किस को बोलते पता हैजो हर जगहहर देश मेंहर काल मेंहर वस्तु में , हर परिस्थिति में जो परमेश्वर मौजूद है 
उसी का नाम हरि हैऔर उस का स्मरण करने से पाप ताप शोक दुःख हर लिए जाते है..कैसा भी बीमार आदमी हो
उस को हरि ॐ की साधना दे दो..चंगा होने लगेगाबिलकुल पक्की बात है.

जो लोग निगुरे हैं, जिन लोगों के चित्त में वासना है उन लोगों को अकेलापन खटकता है। जिनके चित्त में राग, द्वेष और मोह की जगह पर सत्य की प्यास है उनके चित्त में आसक्ति का तेल सूख जाता है। आसक्ति का तेल सूख जाता है तो वासना का दीया बुझ जाता है। वासना का दीया बुझते ही आत्मज्ञान का दीया जगमगा उठता है।
संसार में बाह्य दीया बुझने से अँधेरा होता है और भीतर वासना का दीया बुझने से उजाला होता है। इसलिए वासना के दीये में इच्छाओं का तेल मत डालो। आप इच्छाओं को हटाते जाओ ताकि वासना का दीया बुझ जाय और ज्ञान का दीया दिख जाय।
वासना का दीया बुझने के बाद ही ज्ञान का दीया जलेगा ऐसी बात नहीं है। ज्ञान का दीया भीतर जगमगा रहा है लेकिन हम वासना के दीये को देखते हैं इसलिए ज्ञान के दीये को देख नहीं पाते।
कुछ सैलानी सैर करने सरोवर गये। शरदपूर्णिमा की रात थी। वे लोग नाव में बैठे। नाव आगे बढ़ी। आपस में बात कर रहे हैं किः यार ! सुना था किः चाँदनी रात में जलविहार करने का बड़ा मज़ा आता है…. पानी चाँदी जैसा दिखता है… यहाँ चारों और पानी ही पानी है। गगन में पूर्णिमा का चाँद चमक रहा है फिर भी मज़ा नहीं आता है।
केवट उनकी बात सुन रहा था। वह बोलाः
बाबू जी ! चाँदनी रात का मजा लेना हो तो यह जो टिमटिमा रहा है न लालटेन, उसको फूँक मारकर बुझा दो। नाव में फानूस रखकर आप चाँदनी रात का मजा लेना चाहते हो? इस फानूस को बुझा दो।
फानूस को बुझाते ही नावसहित सारा सरोवर चाँदनी में जगमगाने लगा। …..तो क्या फानूस के पहले चाँदनी नहीं थी? आँखों पर फानूस के प्रकाश का प्रभाव था इसलिए चाँदनी के प्रभाव को नहीं देख पा रहे थे।
इसी प्रकार वासना का फानूस जलता है तो ज्ञान की चाँदनी को हम नहीं देख सकते हैं। अतः वासना को पोसो मत। ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। जैसे ब्रह्मचारी अकेला रहता है वैसे अपने आप में अकेले…. किसी की आशा मत रखो। आशा रखनी ही है तो राम की आशा रखो। राम की आशा करोगे तो तुम आशाराम बन जाओगे। आशा का दास नहीं…. आशा का राम !
आशा तो एक राम की और आश निराश।

मंत्र निश्चित रूप से अपना काम करते हैं। जैसे, पानी में कंकड़ डालते हैं तो उसमें वर्तुलाकार तरंग उठते हैं वैसे ही मंत्रजप से हमारी चेतना में आध्यात्मिक तरंग उत्पन्न होते हैं। हमारे इर्द-गिर्द सूक्ष्म रूप से एक प्रकाशित तेजोवलय का निर्माण होता है। सूक्ष्म जगत में उसका प्रभाव पड़ता है। मलिन तुच्छ चीजें उस तेजोमण्डल के कारण हमारे पास नहीं आ सकतीं।
श्री मधुसूदनी टीका श्रीमदभगवदगीता की मशहूर एवं महत्त्वपूर्ण टीकाओं में से एक है। इसके रचयिता श्री मधुसूदन सरस्वती संकल्प करके जब लेखनकार्य के लिए बैठे ही थे कि एक मस्त परमहंस संन्यासी एकाएक द्वार खोलकर भीतर आये और बोलेः
अरे मधुसूदन! तू गीता पर टीका लिखता है तो गीताकार से मिला भी है कि ऐसे ही कलम उठाकर बैठ गया है? भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किये हैं कि ऐसे ही उनके वचनों पर टीका लिखने लग गया?”
श्री मधुसूदनजी तो थे वेदान्ती, अद्वैतवादी। वे बोलेः दर्शन तो नहीं किये। निराकार ब्रह्म-परमात्मा सबमें एक है। श्रीकृष्ण के रूप में उनका दर्शन करने का हमारा प्रयोजन भी नहीं है। हमें तो केवल उनकी गीता का अर्थ स्पष्ट करना है।
नहीं…. पहले उनके दर्शन करो फिर उनके शास्त्र पर टीका लिखो। लो यह मंत्र। छः महीने इसका अनुष्ठान करो। भगवान प्रकट होंगे। उनसे मिल-जुलकर फिर लेखनकार्य का प्रारंभ करो।
मंत्र देकर बाबाजी चले गये। श्री मधुसूदनजी ने अनुष्ठान चालू किया। छः महीने पूरे हो गये लेकिन श्रीकृष्ण के दर्शन न हुए। अनुष्ठान में कुछ त्रुटि रह गई होगी… ऐसा सोचकर उन्होंने दूसरे छः महीने में दूसरा अनुष्ठान किया फिर भी श्रीकृष्ण आये नहीं।
श्री मधुसूदन के चित्त में ग्लानि हो गई। सोचा किः किसी अजनबी बाबाजी के कहने से मैंने बारह मास बिगाड़ दिये अनुष्ठानों में। कहाँ तो सबमें ब्रह्म माननेवाला मैं अद्वैतवादी और कहाँ हे कृष्ण… हे भगवान… दर्शन दो… दर्शन दो… ऐसे मेरा गिड़गिड़ाना ? जो श्रीकृष्ण की आत्मा है वही मेरी आत्मा है। उसी आत्मा में मस्त रहता तो ठीक रहता। श्रीकृष्ण आये नहीं और पूरा वर्ष भी चला गया। अब क्या टीका लिखना ?”
वे ऊब गये। मूड ऑफ हो गया। अब न टीका लिख सकते हैं न तीसरा अनुष्ठान कर सकते हैं। चले गये यात्रा करने को तीर्थ में। वहाँ पहुँचे तो सामने से एक चमार आ रहा था। उस चमार ने इनको पहली बार देखा और इन्होंने भी चमार को पहली बार देखा। चमार ने कहाः
बस, स्वामीजी! थक गये न दो अनुष्ठान करके?”
श्रीमधुसूदन स्वामी चौंके ! सोचाः अरे मैंने अनुष्ठान किये, यह मेरे सिवा और कोई जानता नहीं। इस चमार को कैसे पता चला?”
वे चमार से बोलेः तेरे को कैसे पता चला?”
कैसे भी पता चला। बात सच्ची करता हूँ कि नहीं ? दो अनुष्ठान करके थककर आये हो। ऊब गये, तभी इधर आये हो। बोलो, सच कहता हूँ कि नहीं?”
भाई ! तू भी अन्तर्यामी गुरु जैसा लग रहा है। सच बता, तूने कैसे जाना ?”
स्वामी जी ! मैं अन्तर्यामी भी नहीं और गुरु भी नहीं। मैं तो हूँ जाति का चमार। मैंने भूत को वश में किया है। मेरे भूत ने बतायी आपके अन्तःकरण की बात।
भाई ! देख…. श्रीकृष्ण के तो दर्शन नहीं हुए, कोई बात नहीं। प्रणव का जप किया, कोई दर्शन नहीं हुए। गायत्री का जप किया, दर्शन नहीं हुए। अब तू अपने भूतड़े का ही दर्शन करा दे, चल।
स्वामी जी ! मेरा भूत तो तीन दिन के अंदर ही दर्शन दे सकता है। 72 घण्टे में ही वह आ जायेगा। लो यह मंत्र और उसकी विधि।
श्री मधुसूदन स्वामी विधि में क्या कमी रखेंगे ! उन्होंने विधिसहित जाप किया। एक दिन बीता….. दूसरा बीता….. तीसरा भी बीत गया और चौथा चलने लगा। 72 घण्टे तो पूरे हो गये। भूत आया नहीं। गये चमार के पास। बोलेः श्री कृष्ण के दर्शन तो नहीं हुए तेरा भूत भी नहीं दिखता?”
स्वामी जी! दिखना चाहिए।
नहीं दिखा।
मैं उसे रोज बुलाता हूँ, रोज देखता हूँ। ठहरिये, मैं बुलाता हूँ, उसे। वह गया एक तरफ और अपनी विधि करके उस भूत को बुलाया, बातचीत की और वापस आकर बोलाः
बाबा जी ! वह भूत बोलता है कि मधुसूदन स्वामी ने ज्यों ही मेरा नाम स्मरण किया, डायल का पहली ही नंबर घुमाया, तो मैं खिंचकर आने लगा। लेकिन उनके करीब जाने से मेरे को आग…आग… जैसा लगा। उनका तेज मेरे से सहा नहीं गया। उन्होंने ॐ का अनुष्ठान किया है तो आध्यात्मिक ओज इतना बढ़ गया है कि हम जैसे म्लेच्छ उनके करीब खड़े नहीं रह सकते। अब तुम मेरी ओर से उनको हाथ जोड़कर प्रार्थना करना कि वे फिर से अनुष्ठान करें तो सब प्रतिबन्ध दूर हो जायेंगे और भगवान श्रीकृष्ण मिलेंगे। बाद में जो गीता की टीका लिखेंगे। वह बहुत प्रसिद्ध होगी।
श्री मधुसूदन जी ने फिर से अनुष्ठान किया, भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए और बाद में भगवदगीता पर टीका लिखी। आज भी वह श्री मधुसूदनी टीका के नाम से जग प्रसिद्ध है।
जिसको गुरुमंत्र मिला है और ठीक से उसका जप किया है वह कितने भी भयानक स्मशान से गुजर जाये, कितने भी भूत-प्रेतों के बीच चला जाय तो भूत-प्रेत उस पर हमला नहीं कर सकते, डरा नहीं सकते।
प्रायः उन निगुरे लोगों को भूत-प्रेतडाकिनी-शाकिनी इत्यादि सताते हैं जो लोग अशुद्ध खाते हैं, प्रदोषकाल में भोजन करते हैं, प्रदोषकाल में मैथुन करते हैं। जिसका इष्टदेव नहीं, इष्टमंत्र नहीं, गुरुमंत्र नहीं उसके ऊपर ही भूत-प्रेत का प्रभाव पड़ता है। जो सदगुरु के शिष्य होते हैं, जिनके पास गुरुमंत्र होता है, भूत-प्रेत उनका कुछ नहीं कर सकते।

चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण में पालन करने योग्य बातें
 


चंद्रग्रहण तिथि – 10 दिसम्बर 2011, शनिवार
सूतक काल – सुबह 9:15 से ग्रहण समाप्त होने तक,
ग्रहण काल – शाम 6:15 से रात्रि 9:48 तक, 


सूतक काल 
अंतरिक्ष प्रदुषण के समय को सूतक काल कहा जाता है। सूर्यग्रहण में सूतक 12 घ्ंटे पहले और चंद्रग्रहण में सूतक 9 घंटे पहले लगता है । सूतक काल में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गयी है तथा देव दर्शन वर्जित माने गये हैं 
हमारे ऋषि मुनियों ने सूर्य चन्द्र ग्रहण लगने के समय भोजन करने के लिये मना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में कीटाणु बहुलता से फैल जाते हैं । इसलिये ऋषियों ने पात्रों में क़ुश अथवा तुलसी डालने को कहा है, ताकि सब कीटाणु कुश में एकत्रित हो जायें और उन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनाया जाता है, ताकि कीटाणु मर जायें।
जीव विज्ञान विषय के प्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसन्धान करके सिद्ध किया है कि सूर्य चन्द्र ग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समय किया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचा सकता है ।
ग्रहण काल में न करने योग्य बातें :-
1. ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्‍याग करना, सोना, केश विन्‍यास करना, रति क्रीडा करना, मंजन करना, वस्‍त्र नीचोड़्ना, ताला खोलना, वर्जित किए गये हैं ।
2. ग्रहण के समय सोने से रोग पकड़ता हैलघुशंका करने से घर में दरिद्रता आती हैमल त्यागने से पेट में कृमि रोग पकड़ता है, स्त्री प्रसंग करने से सूअर की योनि मिलती है और मालिश या उबटन किया तो व्यक्ति कुष्‍ठ रोगी होता है।
3. देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता हैउतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी,  काना और दंतहीन होता है।
4. सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए (1 प्रहर = 3 घंटे) । बूढ़े, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व खा सकते हैं ।
5. ग्रहण के दिन पत्‍ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए
6. स्कंद पुराण‘ के अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षो का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है ।
7. ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
8. ये शास्‍त्र् की बातें हैं इसमें किसी का लिहाज नहीं होता।

ग्रहण काल में करने योग्य बातें:-
1. ग्रहण लगने से पूर्व स्‍नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए ।
2. भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जपध्यानदान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।
3. ग्रहण के समय गुरुमंत्रइष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें,  न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है।
4. ग्रहण समाप्‍त हो जाने पर स्‍नान करके ब्राम्‍हण को दान करने का विधान है ।
5. ग्रहण के बाद पुराना पानी, अन्‍न नष्‍ट कर नया भोजन पकाया जाता है, और ताजा भरकर पीया जाता है।
6. ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्रजिसका ग्रहण होउसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
7. ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।
8. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्‍न, जरूरत मंदों को वस्‍त्र् दान देने से अनेक गुना पुण्‍य प्राप्‍त होता है।
गर्भवती स्त्रियों के लिये विशेष सावधानी –
गर्भवती स्त्री को सूर्य – चन्‍द्रग्रहण नहीं देखना चाहिए, क्‍योकि उसके दुष्‍प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन जाता है । गर्भपात की संभावना बढ़ जाती है । इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दिया जाता है, जिससे कि राहू केतू उसका स्पर्श न करें।
ग्रहण के दौरान गर्भवती स्त्री को कुछ भी कैंची, चाकू आदि से काटने को मना किया जाता है, और किसी वस्‍त्र आदि को सिलने से मना किया जाता है । क्‍योंकि ऐसी मान्‍यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं  या फिर सिल (जुड़) जाते हैं ।
ग्रहण के समय मंत्र  सिध्दि :-
1.   ग्रहण के समय  ॐ ह्रीं नमः मंत्र का 10 माला जप करें इससे ये मंत्र् सिध्‍द हो जाता है । फिर अगर किसी का स्‍वभाव बिगड़ा हुआ है, बात नहीं मान रहा है, इत्‍यादि । तो उसके लिए हम संकल्‍प करके इस मंत्र् का उपयोग कर सकते हैं ।
2.  ग्रहण के समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके ॐ नमो नारायणाय मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहण शुद्ध होने पर उस घृत को पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति)कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।

सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण
सूर्यग्रहण में सूतक 12 घंटे पहले और चंद्रग्रहण में सूतक 9 घंटे पहले लगता है । सूतक काल में जहाँ देवदर्शन वर्जित माने गये हैं वहीं मन्दिरों के पट भी बन्द कर दिये जाते हैं । इस दिनजलाशयों, नदियों व मन्दिरों में राहू, केतु व सुर्य के मंत्र का जप करने से सिद्धिप्राप्त होती है और ग्रहों का दुष्प्रभाव भी खत्म हो जाता है ।
       हमारे ऋषि मुनियों ने सुर्यग्रहण लगने के समय भोजन करने के लियेमना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में किटाणु बहुलता से फैलजाते हैं । खाद्य वस्तु, जल आदि में सुक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित करदेते हैं।  इसलिये ऋषियों ने पात्रों मेंक़ुश अथवा तुलसी डालने को कहा है, ताकि सब किटाणु कुश में एकत्रित हो जायें औरउन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनायाजाता है, ताकि किटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिये बनायागया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अन्दर ऊष्मा का प्रवाह बढे, भीतर बाहर के किटाणुनष्ट हो जायें, और धूल कर बह जायें।
       ग्रहण के दौरान भोजन न करने के विषय में जीव विज्ञान विषय केप्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसन्धान करके सिद्ध किया है कि सुर्य चन्द्रग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समयकिया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचासकता है ।
भारतीय धर्म विज्ञान वेत्‍ताओंका कहना है कि सूर्य-चन्‍द्र ग्रहण लगने से 10 घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभावशुरू हो जाता है। अंतरिक्ष प्रदुषण के समय को सूतक काल कहा जाता है। इसलिए सूतककाल और ग्रहण काल के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गयी है।चॅंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी दल (पत्र) में विद्युतशक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिए सौर मंडलीय ग्रहण काल में ग्रहणप्रदूषण को समाप्‍त करने के लिए भोजन व पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्‍ते डालदिए जाते हैं। जिसके प्रभाव से न केवल भोज्‍य पदार्थ बल्कि अन्‍न, आटा आदि भीप्रदूषण से मुक्‍त बने रह सकते हैं।
       पुराणोंकी मान्‍यता के अनुसार राहू चन्‍द्रमा को तथा केतू सूर्य को ग्रसता है। ये दोनोंछाया की संतान है । चन्‍द्रमा और सूर्य की छाया के साथ साथ चलते हैं । चन्‍द्रग्रहणके समय कफ की प्रधानता बढ़ती है, और मन की शक्ति क्षीण होती है । जबकि सूर्य ग्रहणके समय जठराग्नि नेत्र तथा पित्‍त की शक्ति कमजोर पड़ती है ।
      
ग्रहण लगने से पूर्व नदीया घर में उपलब्‍ध जल से स्‍नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए । भजनकीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें । ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें ।ग्रहण के समय में मंत्रों का जप करने से सिध्‍दि प्राप्‍त होती है ।
ग्रहण की अवधि में तेललगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र् त्‍याग करना, केश विन्‍यास करना, रति क्रीडाकरना, मंजन करना वर्जित किए गये हैं । कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्‍नान करते हैं। ग्रहण समाप्‍त हो जाने पर स्‍नान करके ब्राम्‍हण को दान करने का विधान है । कहींकहीं वस्‍त्र् धोने, बर्तन धोने का भी नियम है । पुराना पानी, अन्‍न नष्‍ट कर नयाभोजन पकाया जाता है, और ताजा भरकर पीया जाता है, क्‍योंकि डोम को राहू केतु का स्‍वरूपमाना गया है ।
सूर्यग्रहण में ग्रहण सेचार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए (1 प्रहर= 3 घंटे) । बूढ़े, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व खा सकते हैं । ग्रहण के दिन पत्‍ते,तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए । बाल और वस्‍त्र् नहीं निचोड़ने चाहिए एवंदंत धावन नहीं करना चाहिए । ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना मल मूत्र् का त्‍यागकरना, मैथून करना और भोजन करना ये सब वर्जित कार्य हैं । ग्रहण के समय मन से सत्‍पात्र्को उद्देश्‍य करके जल में जल डाल देना चाहिए ऐसा करने से देने वाले को उसका फलप्राप्‍त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता है । ग्रहण के समय गायोंको घास, पक्षियों को अन्‍न, जरूरत मंदों को वस्‍त्र् दान देने से अनेक गुना पुण्‍यप्राप्‍त होता है।
चन्द्रग्रहण औरसूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। भगवान वेदव्यासजी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गयापुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होताहै। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण मेंदस करोड़ गुना फलदायी होता है।
देवी भागवत में आता हैःसूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाताहै, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोगसे पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। ग्रहणके अवसर पर पृथ्‍वी को नहीं खोदना चाहिए ।
सूर्यग्रहण में ग्रहण सेचार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजननहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं।ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसकाशुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिनपदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वेपदार्थ दूषित नहीं होते। जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय,कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
ग्रहण के समय गायों कोघास, पक्षियों को अन्न,जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दानकरने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
ग्रहण के समय कोई भी शुभया नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
ग्रहण के समय सोने सेरोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा,स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है। गर्भवतीमहिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
गर्भवती स्त्रियों के लिये सावधानी
गर्भवती स्त्री को सूर्य – चन्‍द्रग्रहण नहीं देखना चाहिए, क्‍योकिउसके दुष्‍प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन जाता है । गर्भपात की संभावनाबढ़ जाती है । इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दियाजाता है, जिससे कि राहू केतू उसका स्‍पर्श न करें ग्रहण के दौरान गर्भवती स्त्रीको कुछ भी कैंची, चाकू आदि से काटने को मना किया जाता है , और किसी वस्‍त्र आदि कोसिलने से मना किया जाता है । क्‍योंकि ऐसी मान्‍यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंगया तो कट जाते हैं  या फिर सिल (जुड़) जातेहैं ।
ग्रहण केसमय ः-
1ग्रहण के सोने से रोग पकड़ता है किसी कीमत पर नहीं सोना चाहिए।
2ग्रहण के समय मूत्र् – त्‍यागने से घर में दरिद्रता आती है ।
3 शौचकरने से पेट में क्रीमी रोग पकड़ता है । ये शास्‍त्र् की बातें हैं इसमें किसी कालिहाज नहीं होता।
4ग्रहण के समय संभोग करने से सूअर की योनी मिलती है ।
5ग्रहण के समय किसी से धोखा या ठगी करने से सर्प की योनि मिलती है ।
6जीव-जन्‍तु या किसी की हत्‍या करने से नारकीय योनी में भटकना पड़ता है ।
7ग्रहण के समय भोजन अथवा मालिश किया तो कुष्‍ठ रोगी के शरीर में जाना पड़ेगा।
8ग्रहण के समय बाथरूम में नहीं जाना पड्रे ऐसा खायें।
9ग्रहण के दौरान मौन रहोगे, जप और ध्‍यान करोगे तो अनन्‍त गुना फल होगा।
॥ ग्रहण विधि निषेध ॥
 १. सूर्यग्रहण मे ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण मे तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये । बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहणपूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुध्द बिम्बदेख कर भोजन करना चाहिये । (१ प्रहर = ३घंटे)
 २.  ग्रहण के दिनपत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए । बाल तथा वस्त्र नहींनिचोड़ने चाहियेव दंत धावननहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र कात्याग करना, मैथुन करनाऔरभोजन करना – ये सब कार्य वर्जित  हैं ।
 ३. ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्दयेश्य करके जल मेजल डाल देना चाहिए ।  ऐसा करने से देनेवालेको उसका फल प्राप्त होता है औरलेनेवाले को उसका दोष भी नहीं लगता।
४. कोइ भीशुभ कार्य नहीं करना चाहिये और नया कार्य शुरु नहीं करना चाहिये ।
 ५. ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थो मे तिल या कुशा डालीहोती है, वे पदार्थ दुषितनहीं होते । जबकि पके हुएअन्नका त्याग करके गाय, कुत्ते को डालकरनया भोजन बनाना चाहिये ।
 ६. ग्रहण वेध के प्रारंभ मे तिल या कुशा मिश्रित जल काउपयोग भी अत्यावश्यक परिस्थिति  मे हीकरना चाहिये और ग्रहण शुरु होने से अंत तक अन्न या जल नहीं लेना चाहिये ।
 ७. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना  पुण्यप्राप्तहोता है ।
 ८. तीन दिन या एक दिन उपवास करके स्नान दानादि का ग्रहणमें महाफल है, किंतु  संतानयुक्तग्रहस्थको ग्रहणऔर संक्रान्ति के दिन उपवास नहीं करना चाहिये।
 ९. स्कंद पुराणके अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारहवर्षो का एकत्र किया हुआसबपुण्यनष्ट हो जाता है ।
 १०. देवी भागवतमें आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदनानहीं चाहिये ।
ग्रहण केसमय मंत्र् सिध्दि ः-
1.   ग्रहण के समय ॐ ह्रीं नमः मंत्र का 10 माला जप करें इससे ये मंत्र् सिध्‍दहो जाता है । फिर अगर किसी का स्‍वभाव बिगड़ा हुआ है …. बात नहीं मान रहा है…. इत्‍यादि ….. । तो उसके लिए हम संकल्‍प करके इस मंत्र् का उपयोग कर सकतेहैं ।
2.  श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके ॐ नमोनारायणाय मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत कोपी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथावाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।

संत एकनाथ जी महाराज के पास एक बड़े अदभुत दण्डी संन्यासी आया करते थे। एकनाथ जी उन्हें बहुत प्यार करते थे। वे संन्यासी ये मंत्र जानते थेः
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्चयते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।
ॐ शांतिः ! शांतिः !! शांतिः !!!
और इसको ठीक से पचा चुके थे। वे पूर्ण का दर्शन करते थे सबमें। कोई भी मिल जाये तो मानसिक प्रणाम कर लेते थे। कभी बाहर से भी दण्डवत् कर लेते थे।
  
एक बार वे दण्डी संन्यासी बाजार से गुजर रहे थे। रास्ते में कोई गधा मरा हुआ पड़ा था। अरे, क्या हुआ ? कैसे मर गया ?’ – इस प्रकार की कानाफूसी करते हुए लोग इकट्ठे हो गये। दण्डी संन्यासी की नजर भी मरे हुए गधे पर पड़ी। वे आ गये अपने संन्यासीपने में। हे चेतन ! तू सर्वव्यापक है। हे परमात्मा ! तू सबमें बस रहा है। – इस भाव में आकर संन्यासी ने उस गधे को दण्डवत् प्रणाम किये। गधा जिंदा हो गया ! अब इस चमत्कार की बात चारों ओर फैल गयी तो लोग दण्डी संन्यासी के दर्शन हेतु पीछे लग गये। दण्डी संन्यासी एकनाथ जी के पास पहुँचे। उनके दिल में एकनाथ जी के लिए बड़ा आदर था। उन्होंने एकनाथ जी को प्रार्थना कीः ….अब लोग मुझे तंग कर रहे हैं।
एकनाथ जी बोलेः फिर आपने गधे को जिन्दा क्यों किया ? करामात करके क्यों दिखायी ?”
संन्यासी ने कहाः मैंने करामात दिखाने का सोचा भी नहीं था। मैंने तो सबमें एक और एक में सब – इस भाव से दण्डवत किया था। मैंने तो बस मंत्र दोहरा लिया कि हे सर्वव्यापक चैतन्य परमात्मा ! तुझे प्रणाम है। मुझे भी पता नहीं कि गधा कैसे जिंदा हो गया !”
जब पता होता है तो कुछ नहीं होता, जब तुम खो जाते हो तभी कुछ होता है। किसी मरे हुए गधे को जिंदा करना, किसी के मृत बेटे को जिंदा करना – यह सब किया नहीं जाता, हो जाता है। जब अनजाने में चैतन्य तत्त्व के साथ एक हो जाते हैं तो वह कार्य फिर परमात्मा करते हैं। इसी प्रकार संन्यासी अपने चैतन्य के साथ एकाकार हो गये तो वह चमत्कार परमात्मा ने कर दिया, संन्यासी ने वह कार्य नहीं किया।
लोग कहते हैं- आसाराम बापूजी ने ऐसा-ऐसा चमत्कार कर दिया। अरे, आसाराम बापू नहीं करते, जब हम इस वैदिक मंत्र के साथ एकाकार हो कर उसके अर्थ में खो जाते है तो परमात्मा हमारा कार्य कर देते हैं और तुमको लगता है कि बापू जी ने किया। यदि कोई व्यक्ति या साधु-संत ऐसा कहे कि यह मैंने किया है तो समझना कि या तो वह देहलोलुप है या अज्ञानी है। सच्चे संत कभी कुछ नहीं करते।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- ज्ञानी की दृष्टि उस तत्त्व पर है इसीलिए वे तत्त्व को सार और सत्य समझते हैं। तत्त्व की सत्ता से जो हो रहा है उसे वे खेल समझते हैं।
हर मनुष्य अपनी-अपनी दृष्टि से जीता है। संन्यासी की दृष्टि ऐसी परिपक्व हो गयी थी कि गधे में चैतन्य आत्मा देखा तो वास्तव में उसके शरीर में चैतन्य आत्मा आ गया और वह जिन्दा हो गया। तुम अपनी दृष्टि को ऐसी ज्ञानमयी होने दो तो फिर सारा जगत तुम्हारे लिए आत्ममय हो जायेगा।

हजारो-हजारों के जीवन में मैंने देखा कि जिन्होंने संतों का कुप्रचार किया, उन्हें सताया या संत के दैवी कार्य में बाधा डाली, उनको फिर खूब-खूब दुःख सहना पड़ा, मुसीबतें झेलनी पड़ीं। जो संत के दैवी कार्य में लगे उनको खूब सहयोग मिला और उन्होंने बिगड़ी बाजियाँ जीत लीं। उनके बुझे दीये जल गये, सूखे बाग लहराने लगे। ऐसे तो हजारों-लाखों लोग होंगे।
गुरुवाणी में जो आया है, बिल्कुल सच्ची बात हैः
संत का निंदकु महा हतिआरा।।
संत का निंदकु परमेसुरि मारा।।
संत का दोखी बिगड़ रूप हो जाइ।।
संत के दोखी कउ दरगह मिलै सजाइ।
संत के दोखी की पुजै न आसा।
संत के दोखी उठी चलै निरासा।।
संत के दोखी कउ अबरू न राखन हारू।
नानक संत भावै ता लए उवारि।
अगर वह सुधर जाता है और संत की शरण आता है तो फिर संत उसका अपनी कृपा से उद्धार भी कर देते हैं।
किसी का सत्यानाश करना हो तो उसे संत की निंदा सुना दो, अपने-आप सत्यानाश हो जायेगा और किसी का बेड़ा पार करना हो तो संत के सत्संग में तथा संत के दैवी कार्य में लगा दो, अपने आप उसका भविष्य उज्जवल हो जायेगा।
यह बात रामायणकार की दृष्टि से भी मिलती हैः
जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना।
आप भगवन्नाम-सुमिरन करते हो, दुष्ट प्रवृत्ति से बचते हो तो आपकी मति सुमति हो जाती है, अनेक प्रकार की दैवी सम्पदा आपकी सुरक्षा करती है। आपके पास वालों को भी फायदा हो जाता है। इस प्रकार जहाँ सुमति है वहाँ उस परमात्मदेव की सम्पदा रक्षा करती है।
जहाँ कुमति तहँ बिपत्ति निदाना।।
जो कुकर्म करते हैं, दूसरों की श्रद्धा तोड़ते हैं अथवा और कुछ गहरा कुकर्म करते हैं उन्हें महादुःख भोगना पड़ता है और यह जरूरी नहीं है कि किसी ने आज श्रद्धा तोड़ी तो उसको आज ही फल मिले। आज मिले, महीने के बाद मिले, दस साल के बाद मिले… अरे ! कर्म के विधान में तो ऐसा है कि 50 साल के बाद  भी फल मिल सकता है या बाद के किसी जन्म में भी मिल सकता है।श्रद्धा से प्रेमरस बढ़ता है, श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है। कोई हमारा हाथ तोड़ दे तो इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा पैर तोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है, किसी ने हमारा सिर फोड़ दिया तो वह इतना पापी नहीं है जितना वह पापी है जो हमारी श्रद्धा को तोड़ता है।
कबीरा निंदक निंदक न मिलो पापी मिलो हजार।
एक निंदक के माथे पर लाख पापिन को भार।।
जो भगवान की, हमारी साधना की अथवा गुरु की निंदा करके हमारी श्रद्धा तोड़ता है वह भयंकर पातकी माना जाता है। उसकी बातों में नहीं आना चाहिए।
रविदासजी, दादू दीनदयालजी आदि संतों के लिए अफवाहें और कहानियाँ बनाकर निंदा करने वाले लोग थे। स्वामी रामसुखदासजी के लिए निंदा करने वाले लोग थे। 60 साल की उम्र में उस महासंत के बारे में कई प्रकार के हथकंडे अपनाकर ऐसा कुप्रचार किया गया, जिसको झेलने में हमारी वाणी अपवित्र होगी और सुनने से आपके कान अपवित्र होंगे। ऐसी गंदी-गंदी बातों का प्रचार किया कि उस महान संत को अन्न और जल छोड़ देना पड़ा।
निंदा करके लोगों की श्रद्धा तोड़नेवाले लोगों को तो जब कष्ट होगा तब होगा लेकिन जिसकी श्रद्धा टूटी उसका तो सर्वनाश हुआ। बेचारे की शांति गयी, प्रेमरस गया, सत्य का प्रकाश गया। गुरु से नाता जुड़ा और फिर पापी ने तोड़ दिया।
आजकल हिन्दू धर्म को नीचा दिखाने का षडयंत्र हिन्दुस्तान में चल रहा है। हम क्यों अपने धर्म पर से श्रद्धा टूटने देंगे? जिस धर्म में भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए, श्रीराम अवतरित हुए, शिवजी प्रगट हुए, जिस धर्म में मीराबाई, संत कबीरजी, गुरु नानकजी जैसे महापुरुष प्रकट होते रहे, जिस धर्म में गंगाजी को प्रकट करने वाले राजा भगीरथ हुए ऐसा धर्म हम क्यों छोड़ेंगे?
गुरु तेगबहादुर बोलिया।
सुनो सिखो बड़भागियाँ।।
धड़ दीजिये धर्म न छोड़िये।।
सिर दीज सदगुरु मिले
तो भी सस्ता जान।

कामी का साध्य कामिनी होता है, मोही का साध्य परिवार होता है, लोभी का साध्य धन होता है लेकिन साधक का साध्य तो परमात्मा होते हैं। जीवभाव की जंजीरों में जकड़ा साधक जब संसार की असारता को कुछ-कुछ जानने लगता है तो उसके हृदय में विशुद्ध आत्मिक सुख की प्यास जगती है। उसे पाने के लिए वह भिन्न-भिन्न शास्त्रों व अनेक साधनाओं का सहारा लेता है परंतु जब उसे यह अनुभव होता है कि उसका भीतरी खालीपन किसी प्रकार दूर नहीं हो रहा है तो वह अपने बल का अभिमान छोड़कर सर्वव्यापक सत्ता परमात्मा को सहाय के लिए पुकारता है। तब उसके साध्य परमात्मा ब्रह्मज्ञानी सदगुरू के रूप में अवतरित होकर साकार रूप में अठखेलियाँ करते हैं।
इसी श्रृंखला में वर्तमान में ब्रह्मनिष्ठ सदगुरु परम पूजनीय बापू जी साधक-भक्तों को दर्शन, सत्संग, ध्यान तथा कुंडलिनी योग व नादानुसंधान योग आदि यौगिक कुंजियाँ द्वारा हँसते, खेलते, खाते, पहनते सहज में ही मुक्तिमार्ग की यात्रा करा रहे हैं। गुरुग्रंथ साहिब में आता हैः
नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी हौवै जुगति।
हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे हौवे मुकति।।
पूज्य श्री कहते हैं- हे साधक ! ईश्वर न दूर है न दुर्लभ। आज दृढ़ संकल्प कर कि मैं परमात्मा का साक्षात्कार करके ही रहूँगा। तू केवल एक कदम उठा, नौ सौ निन्यानवे कदम वह परमात्मा उठाने को तैयार है। कातरभाव से प्रार्थना करते-करते खो जा, जिसका है उसी का हो जा !”
जिज्ञासु अपनी जिज्ञासापूर्ति के लिए शास्त्र पढ़ते हैं लेकिन उनके गूढ़ रहस्य को न समझ पाने के कारण उनसे रसमय जीवन जीने की कला नहीं प्राप्त कर पाते। यह तो तभी सम्भव है जब शास्त्रों की उक्ति ( वासुदेवः सर्वम् आदि) की अंतर में अनुभूति किये हुए कोई सुदुर्लभ सत्पुरुष सुलभ हो जायें।
आत्मरस का पान कराने वाले पूज्य श्री से जो सौभाग्यशाली भक्त मंत्रदीक्षा लेते हैं व ध्यानयोग शिविरों में आते हैं, उन्हें आपकी अहैतुकी की करुणा-कृपा से चित्शक्ति-उत्थान के दिव्य अनुभव होते हैं, जिससे चिंता-तनाव, हताशा-निराशा आदि पलायन कर जाते हैं और जीवन की उलझी गुत्थियाँ सुलझने लगती हैं। उनका काम राम में बदलने लगता है, ध्यान स्वाभाविक लगने लगता है और मन अंतरात्मा में आराम पाने लगता है। लोगों को बारह-बारह साल तपस्याएँ करने के बाद भी जो सच्चा सुख, भगवदीय शांति नहीं मिलती, वह बारह-दिनों में ही उन्हें महसूस होने लगती है। कृपासिन्धु बापू जी के चरणों में बैठकर सत्संग-श्रवण करने मात्र से साधना में उन्नत होने की कुंजियाँ मिल जाती हैं और शास्त्रों के रहस्य हृदय में प्रकट होने लगते हैं।
साधकों के लिए आपका संदेश हैः अपने देवत्व में जागो। एक ही शरीर, मन, अंतःकरण को कब तक अपना मानते रहोगे ? अनंत-अनंत अंतःकरण, अनंत-अनंत शरीर जिस सच्चिदानंद में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, वह शिवस्वरूप तुम हो। फूलों में सुगंध तुम्हीं हो। वृक्षों में रस तुम्हीं हो। पक्षियों में गीत तुम्हीं हो। सूर्य और चाँद में चमक तुम्हारी है। अपने सर्वोऽहम् स्वरूप को पहचानकर खुली आँख समाधिस्थ हो जाओ। देर न करो, काल कराल सिर पर है।


महाभारत युद्ध के बाद जब पांण्डवों की जीत हो गयी तब श्री कृष्ण भगवान पांण्डवों को भीष्म पितामह के पास ले गये और उनसे अनुरोध किया कि आप पांण्डवों को अमृत स्वरूप ज्ञान प्रदान करें. भीष्म भी उन दिनों शर सैय्या पर लेटे हुए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे. कृष्ण के अनुरोध पर परम वीर और परम ज्ञानी भीष्म ने कृष्ण सहित पाण्डवों को  राज धर्म, वर्ण धर्म एवं मोक्ष धर्म का ज्ञान दिया. भीष्म द्वारा ज्ञान देने का क्रम कार्तिक शुक्ल एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पांच दिनों तक चलता रहा. भीष्म ने जब पूरा ज्ञान दे दिया तब श्री कृष्ण ने कहा कि आपने जो पांच दिनों में ज्ञान दिया है यह पांच दिन आज से अति मंगलकारी हो गया है. इन पांच दिनों को भविष्य में भीष्म पंचक व्रत के नाम से जाना जाएगा. यह व्रत अति मंगलकारी और पुण्यदायी होगा |


भीष्मजी को अर्ध्य देने से पुत्रहीन को पुत्र प्राप्त होता है ….. जिसको स्वप्नदोष या ब्रह्मचर्य सम्बन्धी गन्दी आदतें या तकलीफें हैं, वह इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य देने से ब्रह्मचर्य में सुदृढ़ बनता है | हम सभी साधकों को इन पांच दिनों में भीष्मजी को अर्ध्य जरुर देना चाहिए और ब्रह्मचर्य रक्षा के लिए प्रयत्न करना चाहिए | 


सूर्योदय से पूर्व उठना और पवित्र नदियों का स्मरण करते हुए संभव हो तो तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए | स्नान के बाद निम्न प्रार्थना करते हुए चन्दन  और तिल मिश्रित जल से भीष्मजी को अर्ध्य देना चाहिए : 
“गंगाजी के सुपुत्र, आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले पितामह भीष्म को यह अर्ध्य अर्पण है, हमें ब्रह्मचर्य में सहायता करना”


भीष्म पंचक व्रत का पूर्ण विवरण  जानने हेतु कृपया आश्रम से प्रकाशित एकादशी महात्म्य नाम की वीडियो सीडी देखें |