सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण
सूर्यग्रहण में सूतक 12 घंटे पहले और चंद्रग्रहण में सूतक 9 घंटे पहले लगता है । सूतक काल में जहाँ देवदर्शन वर्जित माने गये हैं वहीं मन्दिरों के पट भी बन्द कर दिये जाते हैं । इस दिनजलाशयों, नदियों व मन्दिरों में राहू, केतु व सुर्य के मंत्र का जप करने से सिद्धिप्राप्त होती है और ग्रहों का दुष्प्रभाव भी खत्म हो जाता है ।
हमारे ऋषि मुनियों ने सुर्यग्रहण लगने के समय भोजन करने के लियेमना किया है, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि ग्रहण के समय में किटाणु बहुलता से फैलजाते हैं । खाद्य वस्तु, जल आदि में सुक्ष्म जीवाणु एकत्रित होकर उसे दूषित करदेते हैं। इसलिये ऋषियों ने पात्रों मेंक़ुश अथवा तुलसी डालने को कहा है, ताकि सब किटाणु कुश में एकत्रित हो जायें औरउन्हें ग्रहण के बाद फेंका जा सके। पात्रों में अग्नि डालकर उन्हें पवित्र बनायाजाता है, ताकि किटाणु मर जायें। ग्रहण के बाद स्नान करने का विधान इसलिये बनायागया ताकि स्नान के दौरान शरीर के अन्दर ऊष्मा का प्रवाह बढे, भीतर बाहर के किटाणुनष्ट हो जायें, और धूल कर बह जायें।
ग्रहण के दौरान भोजन न करने के विषय में जीव विज्ञान विषय केप्रोफेसर टारिंस्टन ने पर्याप्त अनुसन्धान करके सिद्ध किया है कि सुर्य चन्द्रग्रहण के समय मनुष्य के पेट की पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, जिसके कारण इस समयकिया गया भोजन अपच, अजीर्ण आदि शिकायतें पैदा कर शारीरिक या मानसिक हानि पहुँचासकता है ।
भारतीय धर्म विज्ञान वेत्ताओंका कहना है कि सूर्य-चन्द्र ग्रहण लगने से 10 घंटे पूर्व से ही इसका कुप्रभावशुरू हो जाता है। अंतरिक्ष प्रदुषण के समय को सूतक काल कहा जाता है। इसलिए सूतककाल और ग्रहण काल के समय में भोजन तथा पेय पदार्थों के सेवन की मनाही की गयी है।चॅंकि ग्रहण से हमारी जीवन शक्ति का ह्रास होता है और तुलसी दल (पत्र) में विद्युतशक्ति व प्राण शक्ति सबसे अधिक होती है, इसलिए सौर मंडलीय ग्रहण काल में ग्रहणप्रदूषण को समाप्त करने के लिए भोजन व पेय सामग्री में तुलसी के कुछ पत्ते डालदिए जाते हैं। जिसके प्रभाव से न केवल भोज्य पदार्थ बल्कि अन्न, आटा आदि भीप्रदूषण से मुक्त बने रह सकते हैं।
पुराणोंकी मान्यता के अनुसार राहू चन्द्रमा को तथा केतू सूर्य को ग्रसता है। ये दोनोंछाया की संतान है । चन्द्रमा और सूर्य की छाया के साथ साथ चलते हैं । चन्द्रग्रहणके समय कफ की प्रधानता बढ़ती है, और मन की शक्ति क्षीण होती है । जबकि सूर्य ग्रहणके समय जठराग्नि नेत्र तथा पित्त की शक्ति कमजोर पड़ती है ।
ग्रहण लगने से पूर्व नदीया घर में उपलब्ध जल से स्नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए । भजनकीर्तन करके ग्रहण के समय का सदुपयोग करें । ग्रहण के दौरान कोई कार्य न करें ।ग्रहण के समय में मंत्रों का जप करने से सिध्दि प्राप्त होती है ।
ग्रहण की अवधि में तेललगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र् त्याग करना, केश विन्यास करना, रति क्रीडाकरना, मंजन करना वर्जित किए गये हैं । कुछ लोग ग्रहण के दौरान भी स्नान करते हैं। ग्रहण समाप्त हो जाने पर स्नान करके ब्राम्हण को दान करने का विधान है । कहींकहीं वस्त्र् धोने, बर्तन धोने का भी नियम है । पुराना पानी, अन्न नष्ट कर नयाभोजन पकाया जाता है, और ताजा भरकर पीया जाता है, क्योंकि डोम को राहू केतु का स्वरूपमाना गया है ।
सूर्यग्रहण में ग्रहण सेचार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण में तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए (1 प्रहर= 3 घंटे) । बूढ़े, बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व खा सकते हैं । ग्रहण के दिन पत्ते,तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए । बाल और वस्त्र् नहीं निचोड़ने चाहिए एवंदंत धावन नहीं करना चाहिए । ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना मल मूत्र् का त्यागकरना, मैथून करना और भोजन करना ये सब वर्जित कार्य हैं । ग्रहण के समय मन से सत्पात्र्को उद्देश्य करके जल में जल डाल देना चाहिए ऐसा करने से देने वाले को उसका फलप्राप्त होता है और लेने वाले को उसका दोष भी नहीं लगता है । ग्रहण के समय गायोंको घास, पक्षियों को अन्न, जरूरत मंदों को वस्त्र् दान देने से अनेक गुना पुण्यप्राप्त होता है।
चन्द्रग्रहण औरसूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है। भगवान वेदव्यासजी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गयापुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होताहै। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण मेंदस करोड़ गुना फलदायी होता है।
देवी भागवत में आता हैःसूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाताहै, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है। फिर वह उदर रोगसे पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है। ग्रहणके अवसर पर पृथ्वी को नहीं खोदना चाहिए ।
सूर्यग्रहण में ग्रहण सेचार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजननहीं करना चाहिए। बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं।ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसकाशुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिनपदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वेपदार्थ दूषित नहीं होते। जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय,कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।
ग्रहण के समय गायों कोघास, पक्षियों को अन्न,जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दानकरने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।
ग्रहण के समय कोई भी शुभया नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।
ग्रहण के समय सोने सेरोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा,स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है। गर्भवतीमहिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
गर्भवती स्त्रियों के लिये सावधानी
गर्भवती स्त्री को सूर्य – चन्द्रग्रहण नहीं देखना चाहिए, क्योकिउसके दुष्प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन जाता है । गर्भपात की संभावनाबढ़ जाती है । इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा दियाजाता है, जिससे कि राहू केतू उसका स्पर्श न करें ग्रहण के दौरान गर्भवती स्त्रीको कुछ भी कैंची, चाकू आदि से काटने को मना किया जाता है , और किसी वस्त्र आदि कोसिलने से मना किया जाता है । क्योंकि ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंगया तो कट जाते हैं या फिर सिल (जुड़) जातेहैं ।
ग्रहण केसमय ः-
1ग्रहण के सोने से रोग पकड़ता है किसी कीमत पर नहीं सोना चाहिए।
2ग्रहण के समय मूत्र् – त्यागने से घर में दरिद्रता आती है ।
3 शौचकरने से पेट में क्रीमी रोग पकड़ता है । ये शास्त्र् की बातें हैं इसमें किसी कालिहाज नहीं होता।
4ग्रहण के समय संभोग करने से सूअर की योनी मिलती है ।
5ग्रहण के समय किसी से धोखा या ठगी करने से सर्प की योनि मिलती है ।
6जीव-जन्तु या किसी की हत्या करने से नारकीय योनी में भटकना पड़ता है ।
7ग्रहण के समय भोजन अथवा मालिश किया तो कुष्ठ रोगी के शरीर में जाना पड़ेगा।
8ग्रहण के समय बाथरूम में नहीं जाना पड्रे ऐसा खायें।
9ग्रहण के दौरान मौन रहोगे, जप और ध्यान करोगे तो अनन्त गुना फल होगा।
॥ ग्रहण विधि निषेध ॥
१. सूर्यग्रहण मे ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण मे तीन प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिये । बूढे बालक और रोगी एक प्रहर पूर्व तक खा सकते हैं ग्रहणपूरा होने पर सूर्य या चंद्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुध्द बिम्बदेख कर भोजन करना चाहिये । (१ प्रहर = ३घंटे)
२. ग्रहण के दिनपत्ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोडना चाहिए । बाल तथा वस्त्र नहींनिचोड़ने चाहियेव दंत धावननहीं करना चाहिये ग्रहण के समय ताला खोलना, सोना, मल मूत्र कात्याग करना, मैथुन करनाऔरभोजन करना – ये सब कार्य वर्जित हैं ।
३. ग्रहण के समय मन से सत्पात्र को उद्दयेश्य करके जल मेजल डाल देना चाहिए । ऐसा करने से देनेवालेको उसका फल प्राप्त होता है औरलेनेवाले को उसका दोष भी नहीं लगता।
४. कोइ भीशुभ कार्य नहीं करना चाहिये और नया कार्य शुरु नहीं करना चाहिये ।
५. ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थो मे तिल या कुशा डालीहोती है, वे पदार्थ दुषितनहीं होते । जबकि पके हुएअन्नका त्याग करके गाय, कुत्ते को डालकरनया भोजन बनाना चाहिये ।
६. ग्रहण वेध के प्रारंभ मे तिल या कुशा मिश्रित जल काउपयोग भी अत्यावश्यक परिस्थिति मे हीकरना चाहिये और ग्रहण शुरु होने से अंत तक अन्न या जल नहीं लेना चाहिये ।
७. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जरुरतमंदों को वस्त्र दान से अनेक गुना पुण्यप्राप्तहोता है ।
८. तीन दिन या एक दिन उपवास करके स्नान दानादि का ग्रहणमें महाफल है, किंतु संतानयुक्तग्रहस्थको ग्रहणऔर संक्रान्ति के दिन उपवास नहीं करना चाहिये।
९. ‘स्कंद पुराण‘ के अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारहवर्षो का एकत्र किया हुआसबपुण्यनष्ट हो जाता है ।
१०. ‘देवी भागवत‘ में आता है कि भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पृथ्वी को खोदनानहीं चाहिये ।
ग्रहण केसमय मंत्र् सिध्दि ः-
1. ग्रहण के समय “ ॐ ह्रीं नमः “ मंत्र का 10 माला जप करें इससे ये मंत्र् सिध्दहो जाता है । फिर अगर किसी का स्वभाव बिगड़ा हुआ है …. बात नहीं मान रहा है…. इत्यादि ….. । तो उसके लिए हम संकल्प करके इस मंत्र् का उपयोग कर सकतेहैं ।
2. श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके ‘ॐ नमोनारायणाय‘ मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत कोपी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथावाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।